Saturday, November 27, 2010

कथक के मूल स्वरूप में परिवर्तन और घरानों की देन






हमारे देश में शास्त्रीय संगीत की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है. कथक नृत्य देश का न सिर्फ सबसे प्राचीन शास्त्रीय नृत्य है बल्कि सही मायनों में अगर यह कहा जाए कि कथक भारतीय शास्त्रीय विधाओं का ह्रदय है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. राजा-महाराजा, नवाबों और बादशाहों के शासनकाल में मिले आश्रय में पली-बढ़ी इस नृत्यशैली का जितना विकास हुआ उतना किसी अन्य शास्त्रीय कला का नहीं, किन्तु इन सबके बावजूद वर्तमान में कथक कलाकारों में श्रेष्ठता के अहं और घरानेबाजी के कारण कथक नृत्य का मूल स्वरूप लुप्तप्राय: सा होता जा रहा है. कलाकारों की दृष्टि में कथक के मूल स्वरूप में समय के साथ-साथ होने वाला परिवर्तन समय की मांग है.
कथक के बारे में जब हम बात करते हैं तो पहले ये जरूरी हो जाता है कि कथक की पृष्ठभूमि में झांककर उसके अतीत के बारे में जानकारी प्राप्त करें. कथक का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका ठीक-ठीक उत्तर न तो आज के कथक कलाकारों के पास है न ही कथक गुरुओं के पास. प्राचीन ग्रंथों में नृत्य को ईश्वर प्रदत्त प्रक्रिया मन गया है.
देवताओं को मनोरंजन प्रदान करने के साथ-साथ सामान्य मनुष्य को वेदों का ज्ञान देने के उद्देश्य से भगवान ब्रम्हा ने नाट्यकला की रचना की, जिसे पांचवा वेद कहा गया. इस नाट्यशास्त्र में ऋग्वेद से काव्य, यजुर्वेद से भाव भंगिमाओं, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से सौन्दर्य तत्वों का समावेश किया गया. इस नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में ही नृत्यकला का वर्णन है.
कथक के बारे में भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के अलावा प्रमाण नहीं मिलने की स्थिति में कथक कलाकारों व गुरुजनों का मानना है कि कथक नृत्य में प्रथम स्थान राधा-कृष्ण पर आधारित रचनाओं का होता है, इसलिए संभवत: नृत्यशैली का प्रादुर्भाव राधा-कृष्णके युग में हुआ होगा. इस सम्बन्ध में उनकी दलील यह है कि जिस समय कृष्ण ब्रज छोड़कर द्वारका गए तो ब्रज के निवासियों ने राधा-कृष्ण पर रचनाएँ रचीं, उन्हें कथा का रूप दे प्रचलित किया गया. कथक शब्द कथा अर्थात कहानी से बना है.
प्राचीन समय में चारण और भाट धार्मिक प्रसंगों को संगीत और नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते थे, आगे चलकर इसी संगीत नृत्य ने कथक नृत्य की परम्परा प्रारंभ की. प्रारंभ में कथक में तकनीकी और शास्त्रीय पक्ष का अभाव था लेकिन वैष्णव अध्यातम से पुनर्जागरण के पश्चात कथक को नाट्यशास्त्र पर आधारित क्रमबद्ध स्वरूप प्रदान किया गया. प्रारंभ में कथा सिर्फ पढ़कर सुनाई जाती थी, कालान्तर में इसे प्रभावी बनाने के लिए इसमें गायनशैली का समावेश किया गया और फिर इसे परिष्कृत करते हुए इसमें अंग संचालनकी अभिव्यक्ति को महत्व दिया जाने लगा.
कथक के प्रसार के बारे में अधिकतर कथक विद्वानों का कहना है कि जब द्वारका की समाप्ति हुई तो वहां के लोगों ने जीवनयापन के लिए वहां से पलायन किया तथा भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के नजदीक होने के कारण उन्होंने यहाँ के जोधपुर और बीकानेर क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया. मूल स्वरूप का प्रादुर्भाव जैतारण, बींदासर में हुआ, ऐसा भी कई कथक विद्वान मानते हैं. इन विद्वानों की मान्यता है कि कथक का निकास वास्तव में जैतारण और बींदासरसे ही है जहाँ आज भी अनेक कथक परिवार हैं.
इस क्षेत्र के भात, जो कि बहियाँ रखते हैं उनके पास इन कथक परिवारों के पूर्वजों का विवरण आज भी मौजूद है. कथक वंशावलियों के अनुसार प्रारंभ में कथक करने वालों के नाम अडूजे-खडूजे हुआ करते थे जिनका विवरण भाटों की बहियों में मौजूद है लेकिन बनारस घराने के कलाकार कथक का उदभव स्थल काशी-बनारस को मानते हैं. उनका कहना है कि बनारस में मौजूद असंख्य मंदिरों के प्रांगण से कथक का प्रादुर्भाव हुआ. राजस्थान में तो तब प्रचलित हुआ जब बनारस के राजा ने कुछ कलाकारों को जयपुर दरबार में कथक के विकास हेतु भेजा.
राजस्थान में कथक को सर्वाधिक आश्रय मिला. जयपुर राजघराना कथक को आश्रय देने में सबसे अग्रणी था. यहाँ के गुणी-जनखाने में कथक नर्तकों और गुरुजनों को काफी सुविधाएँ और सम्मान मिला. इसीलिए आज भी जयपुर घराना अन्य कथक घरानों में अग्रणी और प्राचीन है. अगर यह कहा जाए कि जयपुर घराने से ही अन्य घरानों का प्रादुर्भाव हुआ है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. कथक की पारम्परिक शुरुआत का श्रेय जयपुर घराने के पंडित बिन्दादीन महाराज को जाता है, उनके समकालीन पंडित हरिप्रसाद और पंडित हनुमान प्रसाद उस समय जयपुर दरबार के गुणी-जनखाने में विशेष स्थान रखते थे. कहा जाता है कि देव-परी के जोड़े के रूप में प्रसिद्द इन दोनों भाइयों का कथक नृत्य उस समय का श्रेष्ठतम कथक था.
पंडित हरिप्रसाद के बारे में प्रचलित था कि जब वह गोविंददेवजी के मंदिर में अपने नृत्य की प्रस्तुति करते थे तो उनके पैर ज़मीन को नहीं छूते थे जिसके कारण उन्हें देव रूप माना जाने लगा, दूसरी ओर पंडित हनुमान प्रसाद को श्रृंगार पदों पर नृत्य करने के कारण परी का नाम दिया गया. कथक में श्रृंगारिकता का समावेश इसी काल में हुआ. खासतौर से लखनऊ घराने की कथक शैली पर मुग़ल सभ्यता का असर पड़ा जिससे उसमें श्रृंगारिकता का प्रभाव बढ़ गया जो आज भी लखनऊ घराने के कथक नृत्य मैं देखने को मिलता है. पंडित बिन्दादीन महाराज के बाद कथक के विकास की बागडोर पंडित जयलाल, पंडित नारायण प्रसाद, पंडित सुन्दर प्रसाद, शंकरलाल, पंडित लच्छू महाराज, मोहनलाल, पंडित महादेव, पंडित शम्भू महाराज और पंडित अच्छन महाराज ने संभाली. इस पीढी ने कथक का काफी विकास किया. पंडित जयलाल की पुत्री जयकंवर ने विरासत में मिली इस नृत्यकला को इतनी बारीकी से ग्रहण किया कि जब वह नृत्य करती थीं तो उनकी नृत्य गति इतनी तीव्र हुआ करती थी कि देखने वालों को उनकी सूरत भी नज़र नहीं आती थी. जयकंवर कथक नृत्यांगना के रूप में पहली महिला थीं जिन्होंने कथक में ख्याति अर्जित करने के साथ-साथ अन्य महिलाओं को भी इस विधा से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, लेकिन चूरू के बींदावाटी क्षेत्र में रह रहे कथक परिवारों के विचार इससे अलग हैं.
उनका कहना है कि बिन्दादीन महाराज से पहले यहाँ की प्रथम कथक नृत्यांगना हरद्वारा बाई इंदौर के दरबार में गुलाल पर गणेश ताल में गणेश परण के साथ पांवों की थिरकन से भगवान गणपति का चित्र अंकित कर देती थीं जिनके चर्चे आज भी इन परिवारों में हैं. दूसरी पीढी के रूप में सुन्दरलाल, पंडित गौरीशंकर, पंडित कुंदनलाल गंगानी, रोशन कुमारी, पंडित बिरजू महाराज, कृष्ण कुमार महाराज, पंडित राममोहन महाराज आदि ने कथक के प्रचार-प्रसार को अपने नृत्य द्वारा जारी रखा. इन सबका योगदान अविस्मरणीय है, इन्होंने देश-विदेश में कथक को काफी लोकप्रिय बनाया. कथक की पृष्ठभूमि और विकास के बाद वर्तमान कथक घरानों और उनके कलाकारों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि घरानेबाज़ी और कलाकारों में श्रेष्ठता के अहं ने कथक के मूल स्वरूप को कितना नुकसान पहुँचाया है.
इन घरानों का उदय भी कलाकारों की ही देन है. कुछ ख्यातिनाम कलाकारों ने कथक के मूल स्वरूप में अपनी सुविधानुसार थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन करके विभिन्न घरानों की स्थापना की और फिर उनका नृत्य उनके घरानों का प्रतीक बनकर प्रचलित होता चला गया, जिसे आज के कलाकारों ने आतम्सात करके और दृढ़ता प्रदान की है तथा लोकप्रिय बनाने में अपना योगदान दिया है.
जयपुर घराना
कथक की जन्मस्थली राजस्थान की इस धरा से जुडे कथक के तीर्थ जयपुर घराने में नृत्य के दौरान पाँव की तैयारी, अंग संचालन व नृत्य की गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है, इसीलिए सशक्त नृत्य के नाम पर जयपुर घराना शीर्ष स्थान कायम किए हुए है. नृत्याचार्य गिरधारी महाराज व शशि मोहन गोयल के अथक प्रयासों के दम पर यह घराना अपनी पूर्व छवि कायम किए हुए है. इनकी शिष्याओं ज्योति भारती गोस्वामी, कविता सक्सेना, निभा नारंग, रीमा गोयल, प्रीति सोनी, मधु सक्सेना और गीतांजलि आदि अनेक कलाकारों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जयपुर घराने का काफी नाम किया है.
जयपुर घराने को शीर्ष पर पहुँचाने में पद्मश्री से सम्मानित उमा शर्मा, प्रेरणा श्रीमाली, पद्मश्री शोवना नारायण, राजेन्द्र गंगानी और जगदीश गंगानी के योगदान को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. इन कलाकारों ने विदेशों में भारतीय शास्त्रीय नृत्य की जो अमिट छाप छोडी है वह अविस्मरणीय है.
लखनऊ घराना
इस घराने के नृत्य पर मुग़ल व ईरानी सभ्यता के प्रभाव के कारण यहाँ नृत्य में श्रंगारिकता के साथ-साथ अभिनय पक्ष पर भी विशेष ध्यान दिया गया. श्रंगारिकता और सबल अभिनय की दृष्टि से लखनऊ घराना अन्य घरानों से काफी आगे है. इस घराने की वास्तविक पहचान बनाने का श्रेय पदमविभूषण पंडित बिरजू महाराज को दिया जाता है. उनकी शिष्याओं मधुरिता सारंग और शाश्वती सेन व पंडित लच्छू महाराज की शिष्या कुमकुम धर ने देश की शीर्ष नृत्यांगनाओं में स्वयं को स्थापित किया हुआ है. इन्होंने अनेकों बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर कथक के पारंपरिक स्वरूप को सार्थक किया है. कुमकुम धर के साथ-साथ अन्य नृत्यांगनाएं भी अब कथक की नई पीढ़ी को तैयार करने में जुटी हुई हैं.
बनारस घराना
उत्तर प्रदेश का बनारस घराना जयपुर घराने के समकालीन माना जाता है. इस घराने में गति व श्रंगारिकता के स्थान पर प्राचीन व प्रारंभिक शैली पर अधिक जोर दिया गया. बनारस घराने के नाम पर प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी के पश्चात् उनकी पुत्री कथक क्वीन जयंतीमाला ने इसके वैभव और छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है एवं गुरु-शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं.
सांवलदास-जानकीप्रसाद घराना
इस घराने के नाम के साथ विवाद है. इस घराने के कलाकार इसे ही बनारस घराना बताते हैं जबकि बनारस घराने के कलाकार और पंडित सुखदेव प्रसाद जिन्होंने बनारस घराने की स्थापना की, के वंशज सितारादेवी और जयंतीमाला सांवलदास-जानकीप्रसाद घराने को बनारस घराने की ही एक शाखा बताते हैं. प्रख्यात नृत्यगुरु स्व. पंडित कृष्णकुमार महाराज ने इस घराने का दो पीढ़ियों तक नेतृत्व किया और इसकी लोकप्रियता को कायम रखा लेकिन उनके निधन के पश्चात् यह घराना समाप्तप्राय: सा हो चुका है.
रायगढ़ घराना
अन्य सभी घरानों के मुकाबले नया माने जाने वाले इस घराने की स्थापना जयपुर घराने के पंडित जयलाल, पंडित सीताराम, हनुमान प्रसाद और लखनऊ घराने के पंडित अच्छन महाराज, पंडित शम्भू महाराज और पंडित लच्छू मह्जराज ने रायगढ़ के महाराजा चक्रधर सिंह से आश्रय प्राप्त करके की. इस घराने ने इन नामी कलाकारों के संरक्षण में बहुत कम समय में जो ख्याति अर्जित की वह सराहनीय है. इस घराने को लोकप्रिय बनाने में पंडित कार्तिक राम और उनके पुत्र पंडित रामलाल का योगदान अविस्मरणीय रहा है. जब रायगढ़ घराना मृतप्राय: सा हो गया तो पंडित कार्तिक राम की शिष्या रूपाली वालिया ने अपने सबल नृत्य और सशक्त अभिनय के माध्यम से इस घराने को पुन: जीवित करने का प्रयास किया. रूपाली देश की अग्रणी नृत्य कलाकारों में जानी जाती हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह रायगढ़ घराने के पर्याय के रूप में पहचानी जाती हैं.
इन घरानों के कलाकारों के अलावा कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिन्होंने किसी भी घराने की सीमा में बंधने के बजाए मुक्त रूप से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यधिक यश अर्जित किया और भारतीय कथक नृत्य को नई दिशाएं प्रदान की. इस श्रेणी में मालविका सरकार और अमिता दत्त के नाम सर्वप्रथम लिए जाते हैं. कथक के इतने विकास के बाद भी जिस प्रकार विभिन्न घराने और कलाकार स्वयं को श्रेष्ठ मानकर अपनी दुर्बलता का परिचय दे रहे हैं वह कथक और कलाकार दोनों के हित में अनुचित है. भविष्य में उनकी यह प्रवृत्ति कथक के पतन का कारण भी बन सकती है.

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